Tuesday, 22 December 2009

आवाजें

इतनी तीव्र क्यों होती हैं
कि अपने आप को "चुप" कहने के बाद भी उमड़ती रहती हैं

न जाने क्या नाता है इन लफ़्ज़ों से
न जाने क्या नाता है आवाज़ों से
न जाने क्या नाता है ख्यालों से
जो आते जाते ये आते हैं
और जाते हैं ..

कई बार लगता है कि ये कोई और ही है
जो मेरे अन्दर हर पल बोलता है
कभी मीठा, कभी कडवा
कभी ऐसा जो दिल सुनना नहीं चाहता
पर ऐसा सच जो सही है
न कि ऐसा झूठ जो सुन मन शांत रहे..
कभी इन्ही आवाजों को सुन
नए रास्ते मिले हैं
और कभी इन्हें ही सुन
नए अंजाम मिले हैं
कभी कभी इन्ही आवाज़ों ने
ऐसे लोग मिलवाये हैं
जिन्हें आज हम अपना मानते हैं ।

पर कभी कभी यही आवाजें
ऐसे भंवर बनाती हैं
कि अपना आपा हम खोने लगते हैं
और बवंडर में धंसने लगते हैं
तब अंतर्मन कोलाहल कर
हमें उस से खींच
उबार लाता है।

क्या हमारा अंतर्मन किसी और चैनल पर चलता है, जो DTH के माध्यम से सीधे दिल और दिमाग पर छाता है ? और चित्रों के साथ साथ आवाजें भी सुनाता है ? Clear and Sharp?

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