Monday 8 June 2009

ये मनवा की होड़

कबहूँ यह मन सोचे हैं, लिक्खें सौ -सौ पात
कबहूँ जाने क्यों होत है, शब्दन की बरसात।
होता न कोई देर है, न ही होत सबेर
जल्दी जल्दी मच रहे, न होती थोडी देर ।
कबहूँ मनवा शांत होत, बोलत न कोई बोल
सुना सुना कर थक गया, सब कुछ मोल टटोल ।
कबहूँ लिक्खन की मार है, कबहूँ मनवा चोर
ले जाता है संग में, कागद कलम बटोर ।
ना जाने क्या बोले है, क्या जाने किस संग,
का जाने क्या बांचे है, कौन अजब प्रसंग
मनवा ख़ुद तो बोले है, मनवा में होए सोर,
मनवा ख़ुद ही हारे है, बांच सबद कठोर।
मनवा मन का मीत है, कोई न होवे और
चाहे कितना ढूँढ लो, चहुँ दिस चहुँ ओर ।

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