चलता है चाँद अपनी रफ़्तार से
पर अपनी पूर्णिमा
तो दोमाही है
कभी कभी
कतार में खड़े होने पर
नंबर आने पर
मिलती है।
राशन की लम्बी लाइन
और हमारा नंबर आते आते
खिड़की बंद भी हो जाती है ।
दिखाई देती है
चाँद की चांदनी
किसी बैंक के लाकर में
रखी चांदी की तरह ,
जिसे देखने के लिये
एक अपनी चाबी
एक किसी और की कुंजी
का इस्तेमाल करना पड़ता है
और बस
ज़रा सा देख,
झाड पोंछ
वापस रख दिया जाता है ।
हाँ कभी कभी शौकिया
इस चांदनी को
हम पहन भी लेते हैं
पर बस, कभी कभी!!
ऐसी ही है
हमारी पूर्णिमा की चांदनी !
Wednesday, 2 June 2010
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