दूर बैठ कर देखा हमनें...
पर दूरियां इतनी थीं कि कुछ कहना लाज़मी न था ।
उस दिन तुमने रेत पर हमारा नाम लिखा
और फिर कई पल एकटक उसे देखते रहे
कुछ देर सागर की लहरों से खेलते रहे
वापस आते वक्त उसी लिखे हुए नाम
के पास से हो कर तुम गुज़रे
रेत पर अपने पांवो के निशाँ छोड़
और फिर उसकी ओर देख,
न जाने क्या सोच मुस्कुराये..
रेत में कुरेदा हुआ वो नाम
हमारा ही तो था
पर न जाने क्यों उस वक्त
यूँ लगा कि उस पर
तुम्हारा हक हो ।
बस यूँ थोडी सी देर ही तो हुई
ज़ोर से इक पानी का रेला आया
और बहा ले गया वो नाम
और मिला दिया उसे,
तुम्हारे क़दमों के निशानों से ,
रेत फिर कुछ देर में
पानी सोख
वैसी कि वैसी हो गई
जैसे वहां कभी कुछ था ही नहीं
और शायद था भी नहीं
जो था,
वो सिर्फ़ ख्यालों का
कोई लम्हा रहा होगा।
दूर बैठ कर देखा हमनें...
पर दूरियां इतनी थीं कि कुछ कहना लाज़मी न था ।
Tuesday, 20 October 2009
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