Saturday 4 April 2009

मैं ....

कभी-कभी लगता है कि मैं चातक हूँ
बारिश की एक-एक बूँद का इंतज़ार करती हूँ
मुंह उठाए , टकटकी लगा कर
बादलों को देखती रहती हूँ
कि अब तो बरसें
और बारिश की एक बूँद के पड़ते ही
झूम जाती हूँ ।
कभी लगता है कि मैं सारस हूँ
एक टांग पर पानी में खड़े रह कर
तपस्या सी कर रही हूँ
शायद इश्वर की एक झलक तो मिले
और यह इंतज़ार ख़त्म हो ।
कभी लगता है कि मैं रात हूँ,
रोज़ चाँद के आने का इंतज़ार करती हूँ
और जब चाँद आता है ,
तो उसकी चांदनी में भीग जाती हूँ
और सुबह होते ही ,
ओस की एक बूँद बन
कभी फूलों, कभी पत्तों पर
कभी कलियों , कभी घास पर
बिखर जाती हूँ ।
(हैवानियत के बहुत आसार नज़र आते हैं , इंसानियत के कम)
बहुत कम लगता है कि मैं इंसान भी हूँ
जो दूसरो का दर्द देख कर रुक जाती हूँ
और मदद करने के लिए हाथ बढाती हूँ
बहुत कम

2 comments:

DEV PILLAI said...

Is this not the story of a woman.
I loved it. Keep it going like this......do not stop.If you stop it will really be.... bahut kam....really bahut kam.

Medieval Or Modern said...

Definitely not the story. Maybe a part.
Abhi to sirf iti hai....Ath ka intezaar hai