Thursday 15 January 2009

डर लगता है


कुछ उलझे हुए सवालों से डर लगता है
किसी की निगाहें रोज़ मुझे कुछ कहती हैं
और मैं उन्हीं उलझे हुए सवालों में और भी उलझ जाती हूँ
उन सवालों के जवाबों से डर लगता है .

कभी कभी दिल में कुछ तो हसरत सी होती है
उन हसरतों के ख्यालों में कही हुई कुछ बातें
उन बातों के इशारों में मैं शायद अपने को समझ पाती हूँ
बस, उन बातों को समझ कर डर लगता है .

वो नज़रें जो रोज़ यूँ मुझे देखती हैं
कि कुछ कह ही देंगी, या शायद कुछ कहती भी है
कुछ जानती हूँ, कुछ शायद जान रही हूँ
पर क्या करूँ, जानने में भी ..डर लगता है

कुछ जान कर अनजान बनी रहती हूँ
अहसास के दरवाज़े पर खड़ी रहती हूँ
दहलीज़ से बढूँ, पाँव और बढाऊँ
बस.....इस चौखट के उस पार से डर लगता है .

एक हलके से अहसास की थपक होती है
दिल के किवाड़ पर अजब सी दस्तक होती है
वो दरवाज़ा जो बंद कर के रखा है
उसके कांच की चटकार से डर लगता है .
दीखता है उस पार मुझे बहुत कुछ
खुश होती हूँ उस पार का मंज़र देख
सोचती हूँ कि कल पाट दूँगी इसे
लकड़ी के पट से
और रोज़ रुक जाती हूँ... कि कुछ और देख लूँ
इसी हिचकिचाहट में...
रह गया है वो कांच का दरवाजा..
जो रोज़ दिखाता है.., वो ही नजारे, वो ही निगाहें, वो ही सवाल
जवाब हैं, जानती हूँ, पर जान कर भी
अनजान बने रहने का मन करता है
बस्स्स्स्स... इतना ही डर लगता है
मुझे.....अपने ही आप से डर लगता है.

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