क्यों करते हैं हम
रोज़ एक लडाई
कभी अपनों से
कभी परायों से
कभी अपने आप से
कभी हालातों से
कभी जज्बातों से
कभी विचारों से ?
क्या ज़िन्दगी
इन बड़े बड़े शहरों में
सिर्फ़ एक रोजाना की
जद्दो-ज़हद बन रह गई है ?
क्या यह बड़े शहर
छोटे छोटे जज्बातों को
ख्यालों को
अहसासों को
सहेज कर नहीं रख सकते?
क्या यहाँ आकर
लोग प्यार
दुलार
संस्कार
सब भूल जाते हैं?
या यहाँ की तेज़ ज़िन्दगी
इन सब को कुचलती हुई
रेस की गाड़ी की तरह
निकल जाती है ?
Sunday, 15 November 2009
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