Monday, 28 February 2011

रस्सी-कूद


ज सुबह-सुबह...
आते-आते...
सूरज ने हमसे कहा
आओ खेलो...
हमने उसकी ओर देखा
और कहा... खेलें क्या
कहता है...
इतनी सारी किरणों की 
रस्सियाँ फेंक रहा हूँ
खेलती क्यों नहीं..
भुला गयी हो क्या
बचपन के खेल..

हम रुके
कुछ याद कर
हँसे
और वहीँ
खड़े-खड़े
रस्सी-कूद का खेल
सूरज के साथ
खेल कर आये!

सूरज आज...
हमें अपना दोस्त बना गया!
एक हलकी सी आवाज़ दे
बचपन की याद दिला गया!

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