तुम आ जाते हो रोज़
दोस्तों के बहाने
बचपन की कॉलेज की
टेंपररी दोस्ती निभाने
वही पुराने कहकहे
अटकलें लगाने
लेकिन, कुछ कहूँ आज तुम्हें?
तुम आओ न आओ यार
किसको पड़ी है ?
अड़ जाते हो तुम
बेतुकी सी बातों पर
स्त्री और पुरुष के
उलझे से नातों पर
मनु की मनुवाद की
दक़ियानूसी बातों पर
कुछ कन्फ्यूसिंग इडिओटिक
जज़्बातों पर
लेकिन सच कहूँ यार
किसको पड़ी है ?
वो दोस्ती भी
तब थी अब नहीं है
और तुम और मैं
बिलकुल अजनबी हैं
तुम रेगिस्तन के राही
हम पथरीले कंटीले
और दुनियादारी के
बहुत हैं झमेले
अब दोस्ती भी रहने दो यार
मुझे तो बिलकुल नहीं पड़ी है!
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